संयुक्त राष्ट्र में सुधार की आवश्यकता
Updated: Jul 12, 2021
VideshNeeti: डॉ. अभिषेक श्रीवास्तव

वर्ष 2020 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना का 75 वर्ष पूरा हुआ, अपने प्रारंभिक वर्षों से ही संयुक्त राष्ट्र ने विश्व व्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है| सैधांतिक तौर पर संयुक्त राष्ट्र का उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बनाए रखना, मानव-अधिकारों की रक्षा करना, मानवीय सहायता पहुंचाना, सतत-विकास को बढ़ावा देना और अंतर्राष्ट्रीय कानून को बनाए रखना प्रमुख रूप से शामिल है। अपने इस दायित्व में संयुक्त राष्ट्र काफी हद तक सफल भी रहा किन्तु पिछले कुछ वर्षों से संयुक्त राष्ट्र संघ में व्यापक सुधार की आवश्यकता महसूस की जा रही है| कोरोना वैश्विक महामारी के कारण असामान्य परिस्थितियों में आरम्भ हुए महासभा के सत्र में कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा हुई, एक तरफ जहाँ वैश्विक आपदा काल में संयुक्त राष्ट्र की उपस्थिति पर प्रश्न उठे, वही दूसरी तरफ कोरोना महामारी में चीन की संदिग्ध भूमिका, विश्व स्वास्थ्य संगठन की कार्यप्रणाली, आतंकवाद एवं जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर भी चर्चा हुई|
भारत और संयुक्त राष्ट्र
महासभा की 75 वीं बैठक में भारत की तरफ से सुरक्षा परिषद् के विस्तार पर अपना पक्ष रखा गया, महासभा के सत्र को संबोधित करते हुए प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने उसके व्यापक सुधार की आवश्यकता को महत्वपूर्ण रूप से रेखांकित करते हुए विश्व समुदाय के सामने रखा| प्रधानमंत्री ने कहा कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र को निर्णयकारी संस्था में स्थान देना संयुक्त राष्ट्र के लोकतान्त्रिक स्वरुप के लिए अत्यंत आवश्यक है| संयुक्त राष्ट्र को अब नए नेतृत्व की आवश्यकता है जिसमे विश्व के उन देशों को स्थान मिलना चाहिए जिन्होंने पिछले 75 वर्षों में अपने वैश्विक भूमिका का बखूबी निर्वहन किया है तथा वैश्विक मूल्यों को ना सिर्फ अपने देश में स्थापित किया अपितु अंतरष्ट्रीय स्तर पर उसके संरक्षण एवं संवर्धन में भी बड़ी भूमिका निभाई है| कोरोना वैश्विक महामारी के दौरान भारत ने अपने “सभ्यतागत प्रतिबद्धता” के तहत विश्व के लगभग 100 देशों को दवाई तथा चिकित्सीय सुविधा भी उपलब्ध कराई| आतंकवाद, क्षेत्रीय शांति, जलवायु परिवर्तन, हरित उर्जा एवं आर्थिक सहयोग जैसे वैश्विक मुद्दे पर भारत प्रमुख रूप से नेतृत्वकारी भूमिका में है, साथ ही बहुपक्षवाद में सक्रिय भागीदारी करते हुए विश्व व्यवस्था में बहुध्रुवीय नेतृत्व बनाये रखना चाहता है| प्रधानमंत्री मोदी ने इस बात को भी बल दिया कि क्षेत्रीय या वैश्विक साझेदारी के पीछे भारत का नीति किसी अन्य देश को मजबूर करने की नहीं होती है बल्कि भारत अपने विकास यात्रा में मिले अनुभव को साझा करता है|
UNHRC का चुनाव और दोहरे मापदंड
संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद् का कार्य मानव-अधिकारों की रक्षा करना तथा जहाँ भी इसका हनन हो रहा हो वहां उसकी जांच करना तथा उसे सुरक्षित करना है| संयुक्त राष्ट्र के मानव अधिकार परिषद् में चीन और पकिस्तान का दुबारा चुना जाना उसके सिद्धांतों पर प्रश्न खड़ा करता है| 13 अक्टूबर 2020 को संपन्न हुए संयुक्त राष्ट्र मानव-अधिकार परिषद् के चुनाव में एशिया-प्रशांत समूह से 5 देश निर्वाचित हुए जिसमे पकिस्तान और चीन को दुबारा चुना गया, हालाँकि चीन को पूर्व की अपेक्षा 23% कम वोट मिले|
यह सर्वविदित है कि चीन और पाकिस्तान में मानवाधिकारों का रिकॉर्ड बहुत ख़राब रहा है, वहां भाषाई, नृजातीय एवं धार्मिक आधारों पर मानव-अधिकारों का लगातार हनन किया जा रहा है| चीन की कम्युनिस्ट सरकार के दमन का शिकार होने वालों में तिब्बती, ईसाई, उइगुर मुस्लिम और नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले लोग शामिल हैं| तिब्बत और शिंजियांग प्रांत के लोगों के दमन विश्व समुदाय से छिपा भी नही है, वहीँ आजकल नए सुरक्षा कानून के तहत हांगकांग में भी चीन द्वारा मानवाधिकार का दमन जारी है| पाकिस्तान में भी अप्ल्संख्यकों पर लगातार अत्याचार हो रहे हैं| गिलगित-बाल्टिस्तान एवं बलूचिस्तान प्रान्त में मानवाधिकार हनन का मामला तो अब अन्तराष्ट्रीय चिंता का विषय बन चुका है| ह्यूमन राइट्स वाच के अनुसार उसे ‘महामारी’ की संज्ञा दी गयी है| वहां ना सिर्फ बलूच, सिखों एवं हिन्दुओं का बल्कि अहमदिया मुसलमानों का भी लगातार उत्पीडन हो रहा है| ध्यातव्य है कि इन दोनों ही देशों में सरकारों द्वारा सुनियोजित तरीके से मानवाधिकारों का हनन किया जा रहा है| ऐसे में इन दोनों देशों का मानव अधिकार परिषद् में चुना जाना वैश्विक मानवाधिकार मूल्यों के लिए चिंता का विषय है|
संयुक्त राष्ट्र एवं कोरोना वैश्विक महामारी
विश्व समुदाय के समक्ष कोरोना, वैश्विक स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर चुनौती बनकर उभरा| वैसे तो स्वास्थ्य किसी भी देश का आतंरिक विषय माना जाता है परन्तु “बीमारियों के वैश्विकरण” ने इसे वैश्विक विषय बना दिया| उल्लेखनीय है कि बीमारी को सुरक्षा के लिए खतरा मानते हुए सुरक्षा परिषद् ने पिछले दशक में ही इसे वैश्विक मंच पर उठाया था, वर्ष 2000 में सुरक्षा परिषद ने एड्स की बीमारी को सुरक्षा का मुद्दा घोषित किया एवं इसके लिये सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव संख्या 1308 को मंज़ूरी भी दी थी। 2014 में उभरे इबोला बीमारी को लेकर भी सुरक्षा परिषद् ने प्रस्ताव संख्या 3177 के तहत इस बात पर बल दिया था कि इबोला वायरस की महामारी की रोकथाम के लिये संयुक्त राष्ट्र संघ के सभी संगठनों को आपसी समन्वय के साथ काम करना चाहिये। परन्तु कोरोना के दौरान इस तरह के किसी भी प्रयास पर किसी सदस्य ने ध्यान नहीं दिया| सुरक्षा परिषद् में आतंरिक समन्वय की ना सिर्फ कमी दिखी अपितु इसके सदस्य राष्ट्र आपस में ही कई स्तरों पर संघर्षरत दिखे| चीन एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन की भूमिका पर भी सुरक्षा परिषद के ही कई सदस्य सवाल उठा रहे हैं साथ ही अमेरिका द्वारा उसकी फंडिंग पर भी अस्थायी रूप से रोक लगा दी गई है|
चीन की आक्रामक विस्तारवादी नीति एवं संयुक्त राष्ट्र की चुप्पी
चीन अपनी विस्तारवादी एवं आक्रमणकारी नीति के तहत लगातार अपने पडोसी देशों की संप्रभुता पर आक्रमण कर रहा है| ताइवान की संप्रभुता मानने से इंकार करना हो या राष्ट्रीय सुरक्षा नियम के तहत हांग कांग में जबरन अपना अधिकार स्थापित करना हो, सेनकाकू द्वीप पर कब्ज़ा करना या पूर्वी लदाख के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय सीमा का उलंघन करना हो चीन की इस कारस्तानी पर इस वैश्विक संस्था की चुप्पी आश्चर्यजनक है एवं चिंता का विषय है|
प्रश्न सिर्फ महासभा की कार्यप्रणाली पर नहीं है अपितु उसके प्रमुख अंग सुरक्षा परिषद्, विश्व स्वास्थ्य संगठन एवं मानव अधिकार परिषद् की नीतियों पर लगातार उठ रहे है| सुरक्षा परिषद् को ना सिर्फ विश्व के उन जिम्मेदार देशों जैसे भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका, जर्मनी एवं ब्राजील को स्थायी सदस्यता देकर उन्हें निर्णयकारी भूमिका में शामिल चाहिए अपितु वैश्विक सुरक्षा से जुड़े नए चुनौतियों पर भी ध्यान देना चाहिए| कई वैश्विक मुद्दे जो 21वीं सदी में सुरक्षा के लिए खतरा बन कर उभर रहे है जैसे जलवायु परिवर्तन, क्षेत्रीय शांति, मानवाधिकार एवं लोकतंत्र का संकट, वैश्विक स्वास्थ्य एवं खाद्य सुरक्षा इत्यादि सुरक्षा परिषद् के सदस्यों के आपसी असहमति में पीछे छूटते जा रहे हैं| संयुक्त राष्ट्र संघ को इस लक्ष्य पर जरुर विचार करना चाहिए कि जब 2045 में वह अपनी स्थापना की 100 वी वर्षगाँठ मनाये तो यह विश्व ज्यादा सुरक्षित एवं लोकतान्त्रिक हो|
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डॉ. अभिषेक श्रीवास्तव
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं|